न्यायिक पुनर्विलोकन क्या है? What is judicial review?

न्यायिक पुनर्विलोकन क्या है? न्यायिक पुनर्विलोकन  समझते है

इस लेख के माध्यम से आप न्यायिक पुनर्विलोकन की गहन समझ प्राप्त करेंगे और समझ पाएंगे कि यह नागरिकों के अधिकारों और लोकतंत्र की रक्षा में कैसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगले भाग में हम न्यायिक पुनरीक्षण की अवधारणा को विस्तार से समझेंगे।

 

JUDICIAL REVIEW ,  न्यायिक पुर्नविलोकन

कल्पना कीजिए:

  • एक नया कानून बनाया गया है जो आपके मौलिक अधिकारों का हनन करता है।
  • सरकार कोई ऐसा फैसला लेती है जो मनमाना और अन्यायपूर्ण लगता है।
  • विधायिका द्वारा पारित कोई कानून संविधान के विपरीत प्रतीत होता है।

ऐसी परिस्थितियों में क्या होगा? क्या नागरिकों के पास कोई उपाय होगा? हाँ! न्यायिक पुनरीक्षण, कानून का वो पहरेदार है जो न्याय और कानून के शासन को सुनिश्चित करता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन क्या है (what is judicial review):- 

न्यायिक पुनर्विलोकन से तात्पर्य न्यायालयों की उस शक्ति से है जिसके द्वारा विद्यायिक द्वारा बनाये गये कानूनों, कार्यपालिका द्वारा जारी किए गये आदेशों तथा, प्रशासन द्वारा किए गये कार्यों की जाँच करती है। कि वह मूल ढांचे के अनुरूप है या नहीं मूल संरचना के अनुरूप न होने पर न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है

न्यायिक पुनरीक्षण भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है, जो न्यायपालिका को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह संविधान की कसौटी पर कानूनों और कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा कर सके। इसका मतलब है कि यदि कोई कानून या कार्यपालिका का कार्य संविधान के अनुरूप नहीं है, तो न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन की परिभाषाएँ (Definitions of judicial review) –

 एम. वी. पायली के अनुसार, ‘विधायी नियमो को संवैधानिक या असंवैधानिक घोषित करने की न्यायालय की क्षमता ही न्यायिक पुनरावलोकन का सार तत्व है।”

मारबरी मार्शल के अनुसार, “न्यायालय की ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा यह किसी कानूनी या सरकारी कार्य को असवैधानिक घोषित कर सकती है। जिसे यह देश की मूल विधि या संविधान के विरुध्द समझती है।”

न्यायिक पुनरीक्षण का उदाहरण:

  1. 1951 में, चम्मनलाल बनाम भारत सरकार के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1950 को असंबद्ध घोषित कर दिया, यह फैसला देते हुए कि यह संविधान की संशोधन प्रक्रिया का उल्लंघन करता था।
  2. 2012 में, केशवनंद बनाम केरल राज्य के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत की स्थापना की, यह फैसला देते हुए कि संसद संविधान के मूल ढांचे को बदलने वाली कोई भी संशोधन नहीं कर सकती है।

न्यायिक पुनरीक्षण की विशेषताएं (Features of judicial review):

  1. संविधान की सर्वोच्चता: यह सिद्धांत स्थापित करता है कि संविधान देश का सर्वोच्च कानून है, और सभी कानूनों और कार्यों को संविधान के अनुरूप होना चाहिए।
  2. न्यायिक शक्ति की स्वतंत्रता: यह न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र रूप से कार्य करने की शक्ति प्रदान करता है।
  3. मौलिक अधिकारों की रक्षा: यह न्यायपालिका को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम बनाता है।
  4. न्यायिक सक्रियता: यह न्यायालयों को सक्रिय रूप से सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने के लिए कार्य करने की अनुमति देता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन की उत्पत्ति (Origin of judicial review) – 

न्यायिक समीक्षा, की उत्पत्ति सामान्यत: सयुक्त राज्य अमेरिका से मानी जाती है किन्तु पिनाक एवं स्मिथ इसकी उत्पात्ति बिटेन से मानते हैं।

अमेरिका में 1787 में संविधान निर्माण करते समय न्यायिक पुनरीक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी, लेकिन 1803 में मारबरी बनाम मेडिसन’ के केस मे न्यायाधीश मार्शल ने न्यायिक पुनरीक्षण को सर्वप्रथम परिभाषित किया, दोनो न्यायाधीशों ने इसे कानून की वैधानिकता जाँचने की महत्वपूर्ण कसौटी स्वीकार किया 1819 मैकलीच vs मेट्रीलैण्ड 1824 गिब्बन VS ओगडेन

1803 में न्यायाधीश मार्शल ने कहा कि यह न्यायालयो द्वारा अपने समक्ष पेश कानूनो व निर्णयो का निरीक्षण है कि क्या ये संविधान सम्मत है या अपनी शक्ति से बाहर।

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन (judicial review in india) :-

1 ब्रिटिश संविधान की तरह न तो संसद की सर्वोच्चता और न ही अमेरिका के सर्वोच्य न्यायालय की भांति न्यायिक निरंकुशता।

2. भारत में न्यायिक पुनरीक्षण की व्यवस्था सिर्फ कानूनों की व्याख्या तक ही सीमित रखी गई है।

3. भारत के संविधान में न्यायिक पुनरीक्षण से संबंधित कोई भी विशेष उपबंध नहीं है, लेकिन न्यायपालिका की सर्वोच्चता में यह सिद्धांत निहित है।

4. संविधान का अनुछेद-368 संविधान को सर्वोच्च बना देता है इसी कारण कानूनों के संवैधानिकता की जाँच कर उसे असंवैधानिक घोषित करना सर्वोच्च न्यायालय का प्रमुख अधिकार है।

5. वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय मर्यादित तरीके से अपनी इस शक्ति का प्रयोग कर रहा है।

 

न्यायिक पुनरावलोकन संवैधानिक प्रावधान (Judicial review constitutional provision) – 

न्यायिक पुनरीक्षण का मुख्य स्त्रोत अनुच्छेद 13(2) तथा अनुछेद 32 में हैं। अनु. 13(2) में कहा गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो संविधान के भाग-3 में उल्लिखित मूल अधिकारो को छीनती हो या सीमित या न्यून करती हो, वही अनु०-32 में संवैधानिक उपचारो के अधिकारों के तहत उच्चतम न्यायालय को यह शक्ति देता है कि क्या कहीं पर मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं हुआ है इसीतरह संविधान के अनु. 131, 132 भी सर्वोच्च न्यायालय को संघ व राज्य सरकारो द्वारा निर्मित कानूनों के पुनरावलोकन का अधिकार देते हैं।

1. अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 446

2. अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226

3. अनुच्छेद 44 और अनुच्छेद 152

4. अनुच्छेद 17 और अनुच्छेद 143

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न्यायिक पुनरावलोकन पर सीमाए (Limits on judicial review):-

1.न्यायपालिका की इस शुक्ति पर कुछ सीमाएं है जो इसे निरंकुश बनने से रोकते हैं।

2. केवल उन्ही कानूनी को सीमित कर सकती हैं जो उसके समक्ष मुकदमों के रूप में लाये जाते हैं।

3. किसी कानून को तभी अवैध घोषित किया जा सकता है जब कानून की असंवैधानिकता पूर्ण स्पष्ट हो

4. इस शक्ति का प्रयोग कानून की उचित प्रक्रिया के तहत ही किया जा सकता है।

5. कानून की केवल उन्ही धाराओ को अवैध माना जाएगा जो संविधान के विपरीत हो, समस्त कानून को नहीं।

6. राजनीति विवादों में इसका प्रयोग वर्जित है।

न्यायिक पुनरीक्षण का सार (Essence of judicial review):

न्यायपालिका को कानूनों और सरकारी कार्यों की संवैधानिकता की समीक्षा करने की शक्ति प्रदान करता है।

नागरिकों के मौलिक अधिकारों और लोकतंत्र की रक्षा करता है।

मनमाने और अन्यायपूर्ण फैसलों को रोकने में सहायक होता है।

कानून के शासन और समानता को बढ़ावा देता है।

निष्कर्ष:

न्यायिक पुनरीक्षण भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह न केवल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि विधायिका और कार्यपालिका को भी जवाबदेह ठहराता है। यह सुनिश्चित करता है कि शासन कानून के अनुसार हो और न्याय सभी के लिए सुलभ हो।

हालांकि, न्यायिक पुनर्विलोकन से जुड़ी कुछ चुनौतियाँ भी हैं:

  1. न्यायपालिका पर बढ़ता बोझ
  2. न्यायिक सक्रियता का प्रश्न
  3. न्यायिक विवेक का दुरुपयोग

इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए, हमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जवाबदेही को बनाए रखने का प्रयास करना होगा। यह भी महत्वपूर्ण है कि नागरिक अपने अधिकारों और कानून के शासन के महत्व के प्रति जागरूक रहें।

न्यायिक पुनर्विलोकन, लोकतंत्र और न्याय के लिए एक अनमोल उपहार है। हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए और इसे मजबूत बनाने का प्रयास करना चाहिए।

इस लेख के माध्यम से, हमने न्यायिक पुनर्विलोकन की अवधारणा, महत्व, चुनौतियों और निष्कर्ष को समझा है अब आप न्यायिक पुनरीक्षण की भूमिका और इसके प्रभावों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। इस विषय से संदंधित किसी भी प्रश्न लिए आप कमेंट कर सकते है 

 

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